मिथिला का लोकशिल्प: सिक्की

मिथिला का लोकशिल्प: सिक्की

दूर से ही अपनी अनूठी आभा, चटक रंगों, और महीन बुनाई से किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेने वाला सिक्की शिल्प, मिथिला का एक अतिप्राचीन लोकशिल्प है। इस शिल्प का मूल भौगोलिक विस्तार, भारत एवं नेपाल में फैला- मिथिला क्षेत्र रहा है। मिथिला, अर्थात्- मैथिली भाषा में संप्रेषण करने वाले लोगों का मूल निवास-स्थान! (Ray) एक स्थानीय जानकार के अनुसार- ऋग्वेद में सिक्की के लिये सैर्य, तथा इसी शिल्प में प्रयुक्त एक अन्य घास- मूँज आदि की चर्चा की गई है। कृपया, ऋग्वेद के प्रथम मंडल की सूक्त संख्या-191 के अन्तर्गत, मंत्र संख्या-03 का संदर्भ लें

शरास: कुश रासो दर्भास: सैर्या उत।

मुँजाअदृष्टावैरिणा: सर्वेसाकं न्यलिप्सत्।।

(इस मंत्र में शर, कुश, दर्भ, सैर्य, मूँज, एवं वीरण आदि घास परिवार के पवित्र माने जाने वाले कुछ सदस्यों का उल्लेख मिलता है। हालाँकि, इस मंत्र में उल्लिखित घासों का संबंध, यहाँ किसी शिल्पकला से नहीं, बल्कि, वैदिक-युग के अनुष्ठानों में प्रयुक्त पवित्र घासों के रूप में स्थापित किया गया है। 

हिमालय की दक्षिणी तराई में, उत्तर से दक्षिण दिशा में बहने वाली- कमला नदी के दोनों तरफ़ फैले विस्तृत मैदानों (गंडक और बाघमति नदियों के बीच), नमीयुक्त खाली जमीन पर, बिना देखरेख के पनपने वाले लंबे घासों की यह एक प्रजाति है। इसके स्वस्थ विकास केलिये मानसून आधारित आर्द्र जलवायु में 25-35° का तापमान और वार्षिक 1000-1500 मिलीमीटर की वर्षा अपेक्षित होती है। जैविक पदार्थों से भरपूर, उच्च-नमी वाली जलोढ़ मिट्टी इसके लिये सर्वोत्तम है। आमतौर पर मॉनसून के महीनों- मई से सितंबर में इसकी पैदावार होती है। यह घास, मिथिला के बाढ़ प्रभावित और दलदली ज़मीनों पर तेज़ी से बढ़ती है। इसकी व्यवस्थित रूप से कोई खेती नहीं की जाती; बल्कि, यह स्थानीय कमला नदी के दोनों तरफ़- पूरब में कोसी नदी तक, एवं पश्चिम में बाघमती नदी तक फैले क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से, स्थानीय पर्याप्त गीली भूमि पर स्वयं उपजती है। (Sikki Craft) संलग्न मैप में भारत के उत्तरी सीमावर्ती जिलों- दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, दक्षिणी सहरसा, दक्षिणी सुपौल, एवं उत्तर-पूर्वी मुज़फ़्फ़रपुर; तथा, नेपाल के कुछ दक्षिण सीमावर्ती जिलों- रौतरहाट, सरलाही, महोत्तरी, धनुषा, सिराहा, एवं सप्तारी आदि इस घास के मूल प्राकृतिक उपज-क्षेत्र हैं। यह खर-पतवार श्रेणी का एक घास है। इसकी खर को ध्यानपूर्वक देखने के पश्चात, मेरा अनुमान है कि यह, Chrysopogon zizanioodes परिवार का एक सदस्य है। (Vajiram & Ravi) यह दुखद है कि, सिक्की घास हेतु अब तक कोई भी प्रामाणिक वनस्पति-वैज्ञानिक नाम उपलब्ध नहीं है।

 

(मिथिला का एक इंडिकेटिव भौगोलिक मैप जिसमें- सिक्की घास का प्राकृतिक उपज-क्षेत्र, और निवर्तमान सिक्की-शिल्प के उत्पादन क्षेत्रदोनों दिखाये गये हैं।)

मिथिला की लोकवाणी में एक कथा है, कि- वनवास जाने से पहले महाराज जनक ने अपनी पुत्री- श्रीसीताजी, और, दोनों दामादों- श्रीरामचन्द्रजी एवं श्रीलक्ष्मणजी के लिये, सिक्की से बनी हल्की चटाइयाँ एवं आसनी उपहार-स्वरूप मिथिला से भेजी थीं; जिसे, वे अपने साथ सप्रेम वन ले गये। वन में, वे लोग धरती पर इन्हें ही बिछाकर बैठते, विश्राम करते थे। वनवास की अवधि लंबी थी, अतः समय के साथ, धीरे-धीरे ये घिसकर कमजोर होने लगे। परंतु, श्रीसीताजी को सिक्की-शिल्प की कारीगरी का मूल ज्ञान तो था ही; जो उन्होने अपने मायके- मिथिला में सीखी थी। अतः, वनवास के दौरान, मिलने वाले स्थानीय घासों की मदद से वे सिक्की की पुरानी होती चटाईयों और आसनियों की मरम्मत कर, उन्हें पुनः नये जैसा बना लेतीं। यह सान्निध्य, उन्हें वनवास की कठिन परीस्थितियों के बीच भी अपने पिता के वात्सल्य, और माता के ममत्व से जोड़े रखकर अटूट मज़बूती प्रदान करतीं!

प्रकृति में प्रचूर उपलब्धता, स्थानीय लोगों को पारंपरिक-प्रयोगों एवं अनुप्रयोगों हेतु उत्साहित करती रही है। यही कारण है कि, आज भी कमोबेश मैप में दिखाये गये सभी जिलों में पारिवारिक एवं सामाजिक स्वउपयोग हेतु सिक्की-शिल्प लोककला के रूप में पल्लवित है। शिल्प के इस जीवन का आधार बाह्य-प्रेरणा नहीं, बल्कि आम लोकजीवन है; जिसका आधार, मैथिलों की विवाह परंपरा में निहित है।जब घर में कोई कन्या विवाह योग्य होने लगती है, तो उनकी माताएँ, चाचियाँ, बहनें आदि सुबह और शाम की अपनी सामान्य दिनचर्याओं के बीच एक जगह एकत्र होती हैं, ताकि उस कन्या के विवाह से पूर्व, कुछ सुंदर परंतु उपयोगी सामान बना लिये जायें। इस प्रकार अस्थायी वर्कशॉप बनता है- झाड़ू मार कर, गाय के गोबर से लीपा हुआ, घर का आँगन, या फिर दालान। मूलतः यह काम- नीचे समतल धरती पर, पालथी लगा, बैठकर किया जाता है। जमीन पर बिछाई जाती है- पटिया या चटाई, और फिर गप्प-ठहाकों के साथ शुरू होता है सिक्की का काम। कभी-कभी पीढ़ी पर भी बैठकी हो जाती है। शिल्पकारी का ज्ञान पारंपरिक है, यानी- दादी या नानी से माता ने सीखा, और माता से आपने! यह कार्य धन के लिये नहीं, बल्कि, मन से, प्रेमवश किया जाता है। भाव होता है- प्रेम सहित पारिवारिक एवं सामाजिक सहजीवन।सहजीवन आधारित इस कार्य में सहयोग हेतु अगर एक ने किसी दूसरे को बुलाया, तो इसे दोनों के लिये प्रतीकात्मक सम्मान समझा जाता है। उद्येश्य होता है, घर की बेटी को, बड़ों द्वारा सम्मान देना। ताकि, इस शिल्प के उत्पादों- मौनी, पतिया आदि के साथ जब वह अपने ससुराल जाये तो वहाँ उसके पैतृक-गाँव की प्रतिष्ठा बढ़े। वहाँ के लोग यह समझें कि, जिन लोगों के बीच यह कन्या पली-बढ़ी, वे लोग कितने सरस, कुशल और गुणवान हैं! यही तो सामाजिक-सहजीवन की परिकल्पना का सुंदरतम स्वरूप है, जिसने इस शिल्पकला को जन्म दिया, और अब तक जीवित भी रखा है-

सृजनं सुंदरं यस्मात् हस्तकौशल्यसंगतं।

प्रकृते:दत्त संसाध्यं तेन कार्यं विवर्धते।।

(अर्थात्, एक शिल्प तभी अपना सबसे सुंदर स्वरूप पाता है, जब कौशल-पूर्ण मानवीय हाथ उसे जतनपूर्वक संवारते हैं। प्रकृति ने हमें विविध संसाधन दिये हैं; ताकि मानव, उन्हें अपने जीवन को सुलभ और सुंदर बनाने हेतु विवेकपूर्वक उपयोग में ला सकें।)

शिल्पकार्यों के लिये जुलाई से सितंबर के बीच, ताजे सिक्की घास को काटा जाता है। कटाई के बाद इसे किसी समतल, छायादार स्थान में सुखाया जाता है। सीधी धूप में सुखाये जाने पर, इस घास की प्राकृतिक लचक कम हो जाती है; जिससे, शिल्पकारी के समय यह आसानी से मुड़ने की बजाये, टूटने की प्रवृत्ति दिखाता है। इसका प्राकृतिक रंग भी फीका हो जाता है। पर्याप्त सूख जाने के बाद, अनावश्यक पत्तों को चक्कू की मदद से हटा देते हैं, तथा बीच की लचीली और मजूत डंडी को सँभालकर रख लिया जाता हैं

अगले चरण में सिक्की को आवश्यकतानुसार रंगते हैं। रंगकारी हेतु चूल्हा, जलावन, मझोले आकार के पतीले, चम्मच, कलछी, बाँस की कर्ची, पुराना अख़बार, प्लास्टिक की चौड़ी शीट, साफ पानी, और विभिन्न रंगों की आवश्यकता होती है। रंगने के लिये पारंपरिक रूप से- पीले रंग हेतु हल्दी, भूरे रंग हेतु कत्था, हरे रंग हेतु मेहंदी, लाल रंग हेतु गुड़हल, केसरिया हेतु पलाश, नीला हेतु अपराजिता, एवं बैंगनी हेतु जामुन आदि का प्रयोग किया जाता है। इनके अलावे, होली वाले कच्चे रंगों के साथ-साथ आजकल फ़ैब्रिक डाइज का भी इस्तेमाल देखा जा रहा है। इसके लिये साफ पानी को 60-80° तापमान पर उबाला जाता है; फिर इसमें, सिक्की का एक बोझ खोलकर डाल देते हैं। रंग एकसमान फैले, इसके लिये अगले करीब 15-20 मिनटों तक इसे डुबोये रखना होता है, तथा बीच-बीच में कर्ची से हिलाया-डुलाया जाता रहता है। यह रंग पक्का बने, इसके लिये- नमक, फिटकिरी, एवं दही आदि का भी प्रयोग किया जाता है। अधिक समय तक डुबाये रखने से रंग गहराता जाता है। अतः, अपेक्षित रंगत आते ही, सिक्की को बाहर निकाल, रीठा-पानी में धो लेते हैं। अब, किसी छायादार-सह-हवादार स्थान पर इसे सुखाते हैं। परीक्षण हेतु, रंगीन-सूखे हुए घास को किनारे से मोड़कर परीक्षण करते हैं कि, रंग ठीक से चढ़ा, या अभी, कुछ कमी रह गई! अब, सिक्की का बोझा बाँधकर, किसी सुरक्षित परंतु हवादार स्थान में रख लिया जाता है; ताकि आवश्यकतानुसार, शिल्प आदि कार्यों में इसका उपयोग किया जा सके।

सूचि: तीक्ष्णा तथा हस्तौ, कल्पयेताम विचक्षणम।

तृणम रूपम परिवर्त्य, शोभनम निर्मलम पुनः।।

(जब लयबद्ध, झूमते हुए, शिल्पी के हाथ, सूवा, पत्ती और चक्कू जैसे तेज औजारों से, स्वर्ण के समान चमकते हुए सिक्की-घास में अपनी कला की चाशनी भरते हैं; तभी वह घास अपना रूप परिवर्तन कर, पूर्ण निर्मलता के संग मौनी, पतिया आदि के समान शोभायमान स्वरूप पाता है।)

मूलरूप से, सिक्की एक थ्री-डायमेंशनल शिल्प है; जिसमें छोटी टोकरी या बक्से आदि जैसी कृतियाँ बनायी जाती है। प्राकृतिक चमक वाली सिक्की, उसके ऊपर तेज रंगों की परतों, और एकरूप शिल्पकारी के कारण किसी को भी ये अपनी तरफ़ आकर्षित कर लेती हैं। हालाँकि, कागज-कपड़ों पर चिपकाकर बनाये गये इसके फ्रेम्ड, टू-डायमेंशनल स्वरूप भी यदा-कदा दिख जाते हैं।

 इसे तीन भागों में वर्गीकृत कर सकते हैं-

(.) ज्यामितीय: पतीले या लोटे की तरह, एक्स्ट्रूडेड- ट्राइएंगुलर, स्क्वायर, हेक्सागोनल, ओवल, सूर्य, बूँदाकार, अंडाकार, आदि;

(.) अर्ध-ज्यामितीय: विभिन्न वृक्ष, पत्ते, एवं फूलों की आकृतियाँ;

(.) अज्यमितीय: मछली, साँप, आम, हाथी, ऊँट, बैल, चिड़ियाँ, देवी-देवता, कछुआ, खिलौने, आदि।

थ्री-डायमेंशनल शिल्पकारी के प्रमुख औजारों में टकुआ, पत्ती, पीढ़ी, कैंची, पानी भरा बर्तन, छोटी झोली, आदि की आवश्यकता होती है। इस शिल्प हेतु, सिक्की घास के अलावा, मूँज की भी आवश्यकता होती है। सिक्की उत्पादन में शामिल विभिन्न चरण इस प्रकार हैं

चरण-1: कार्य के प्रारंभ में सूखी सिक्की घास तथा मूँज के ऊपर पानी का हल्का सा छिड़काव किया जाता है। क़रीब 10-15 मिनट तक इसी अवस्था में इन्हें छोड़ दिया जाता है; ताकि, अधिक लचीलापन सके, और आगे काम करने में सुविधा हो। 

चरण-2: सर्वप्रथम, मूँज को मोड़-बांध कर एक आधार की संरचना बनायी जाती हैं। यह अंदरूनी स्टफिंग मैटेरियल का काम करता है, और संरचना को मज़बूती भी देता है। अतिरिक्त फाइबरों को पत्ती की सहायता से छाँट लिया जाता है।

चरण-3: टकुआ एवं उँगलियों की सहायता से सिक्की-सूत्र को उसके इर्दगिर्द ऊपर से घुमा-घुमा कर बुना जाता है। किसी भी प्रकार की सिलाई का प्रयोग नहीं होता।

चरण-4: सिक्की और मूँज एक साथ स्पायरली नीचे से ऊपर, या केंद्र से बाहर की तरफ़ जाते हैं- जहाँ तक बनाने वाला ले जाना आवश्यक समझे।

चरण-5: बीच-बीच में रुक कर, सिक्की का खिंचाव देखते रहना होता है, ताकि दो स्ट्रिंग्स के बीच में अधिक स्थान बन जाये।

चरण-6: जब संरचना पूरी तरह से बनकर तैयार हो जाती है तो उसके अंतिम छोड़ों को कुशलतापूर्वक व्यवस्थित कर, बंधा जाता है; ताकि, वह सिर्फ मजबूत रहे बल्कि, देखने में भी सुंदर लगे।

 

चरण-7: कैंची के द्वारा अनावश्यक हिस्सों की छँटाई की जाती है।

चरण-8: किसी साफ कपड़े से संरचना को पोछ कर साफ कर लिया जाता है।

चरण-9: संरचना के ऊपर, ब्रश द्वारा, प्राकृतिक तेल का लेप चढ़ाया जाता है। आजकल इस काम के लिये, वार्निश का भी प्रयोग होता है। यह अंतिम-उत्पाद में चमक लाने के साथ-साथ उसकी रक्षा माइक्रोब्स से भी करता है। 

चरण-10: भंडारण (हवादार, परंतु, मॉइस्चर रहित वातावरण में)

चरण-11: कालांतर में स्व-उपयोग, या विपणन हेतु अन्यत्र भेजना।

टू-डायमेंशनल सिक्की के उत्पाद दीवाल पर टँगे किसी ग्लास-फ़्रेम में आपने देखे हों। थ्री-डायमेंशनल शिल्पकारी के समय सिक्की के अनेक छोटे-बड़े टुकड़े अनुपयोगी हो जाते हैं। फेंके जाने से तो अच्छा है कि इनका भी उपयोग कर लिया जाये! – शायद शिल्पकारों के इसी सोच ने टू-डायमेंशनल सिक्की शिल्प को जन्म दिया होगा। इसमें शिल्प के साथ ही, कला के तत्व भी शामिल हैं। यह एक प्रकार का कोलाज होता है, जिसमें कपड़े, मजबूत गत्ते या कागज के ऊपर पेंटिंग-सदृश्य कंपोज़िशन बनाये जाते है। इसकी शिल्पकारी के लिये- पेंसिल, इरेजर, गोंद, पेपर कटर, कपड़ा, गत्ता या कागज, कटिंग मैट, कैंची, हीटिंग आयरन; तथा, फ्रेमिंग हेतु तकनीकी सहयोग, आदि की आवश्यकता होती है। इसकी शिल्पकारी निम्नलिखित चरणों में सम्पन्न की जा सकती है

चरण-1: कलाकृति का साइज निर्धारण, एवं उसी के अनुसार आधार हेतु कपड़ा या गत्ता या कागज लिया जाना। 

चरण-2: पेंसिल द्वारा चित्रकारी।

चरण-3: चित्रकारी के अनुरूप सिक्की के टुकड़ों का चुनाव या छँटाई (आधार- रंग, चौड़ाई, लंबाई, एवं मोटाई) 

चरण-4: सिक्की के टुकड़ों को बीच से फाड़ना। 

चरण-5: आयरन को कम ताप पर गरम कर उससे सिक्की के बीच से कटे टुकड़ों को एकरूप समतल बनाना। 

चरण-6: पेंसिल चित्रकारी के अनुसार, एक-एक कर सिक्की के कटे छोटे-छोटे टुकड़ों को कैंची से आकार देना। 

चरण-7: सिक्की के निचले हिस्से में गोंद लगा कर उसे आधार के ऊपर, एक-एक कर चिपकाते जाना, जबतक पेंटिंग के अनुरूप कार्य पूरा हो जाये।

चरण-8: पेंटिंग को किसी दूसरे दो-मजबूत आधारों के बीच कुछ घंटों के लिये दबाकर छोड़ देना; ताकि, सिक्की के सभी छोटे-बड़े टुकड़े आपस में अच्छे से चिपक जायें। 

चरण-9: किसी प्रोफेशनल फोटो-फ्रेमर द्वारा इसकी फ्रेमिंग करवाई जाये। फ्रेम के किनारे हवादार रखने चाहियें, ताकि, अंदर नमी पनपेजो कालांतर में सिक्की हेतु माइक्रोबियल समस्या का जनक बन जाये। इस फ़्रेम के पीछे आवश्यकतानुसार होल्डिंग हेतु फिटिंग्स लगवाना अपेक्षित होगा, ताकि, दीवाल या टेबुल पर यह फ्रेम स्थायित्व के साथ टिका रह सके। 

चरण-10: पैकेजिंग एवं भंडारण (हवादार, परंतु, मॉइस्चर रहित वातावरण में)

चरण-11: कालांतर में स्व-उपयोग, या विपणन हेतु अन्यत्र भेजना।

प्राचीनकाल से मिथिला में, अपनी नवविवाहिता पुत्री को सिक्की के रंगबिरंगे, छोटे, परंतु मनमोहक मौनी-पाती दिये जाने की परंपरा रही है। ये आमतौर पर ऊपरी ढक्कन के साथ, या ढक्कन के बिनाअक्सर दो स्वरूपों में देखे जाते हैं। इनके अलावा, विभिन्न धार्मिक स्वरूप, जैसेकि- शिव-पार्वती, राधा-कृष्ण, सीता-राम, दुर्गा, महाकाली, सरस्वती, लक्ष्मी-गणेश, एवं अन्य स्थानीय देवी-देवताओं के सुंदर रूप, आदि के साथ ही; विभिन्न समसामयिक उत्पादों स्वरूप भी आज बनाये जा रहे हैं, जैसे- मोबाईल केस, छोटे पर्स, सजावटी चूड़ियाँ, दीवाल घड़ी का फ़्रेम, टेबल पर रखे जाने वाले फोटो-फ्रेम, दीवाल पर टाँगने वाले विभिन्न कार्टूनों के स्वरूप, आदि। इस शिल्प के द्वारा दैनिक रूप से उपयोगी, सजावटी, एवं उपयोगी-सह-सजावटी, इन तीनों ही प्रकृति के शिल्प-उत्पाद बनाये जाने का प्रचलन रहा है।

 

अगर पारंपरिक मौनी-पाती जैसे फॉर्म्स की बात की जाये, तो वह मूल रूप से दैनिक उपयोग की वस्तुऐं हैं; जिन्हें, उपयोगी-सह-सजावटी वस्तुओं की श्रेणी में उनकी श्रेष्ठ शिल्पकारी, चटक-रंगों का प्रयोग, बुनाई की सेमेट्री, आदि ले आती है। यानी, जब इन छोटे बक्सों का काम हो तब तो वे उपयोगी हैं ही; लेकिन, जब वे सीधे-उपयोग में हों, तो भी उनको देखने मात्र से, दर्शक को- किसी रंग-बिरंगे स्कल्पचर देखने जैसा ही सुकून मिलता है। अपने इन्ही गुणों के कारण, दूर से ही सिक्की के सामानों को झट से पहचाना जा सकता है। मिथिला की प्रसिद्ध, आदिकालीन फोक-कला को त्रिविमीय स्वरूप में सिक्की सुंदरतम स्वरूप प्रदान करती है।   

 

इस प्रकार, सिक्की शिल्प की शिल्पकारी से संबंधित विभिन्न आयामों को आपने जाना। इस अवस्था को उकेरता निम्नोक्त श्लोक यहाँ देना समीचीन जान पड़ता है:

सिक्की तृणम सुवर्णाभं कुशलं करयोजनं।

सौंदर्यं सृजते हस्ते संस्कृते शुभसाधने।।

(अर्थात्, स्वर्ण के समान आभायुक्त सिक्की-घास को शिल्पी अपने हाथों से स्वरूप देते हैं। परिणामस्वरूप, देखने में भव्य एवं उपयोगी सिक्की के सामानों का निर्माण होता है।)

आज, मिथिला का यह पारंपरिक लोकशिल्प अपने आदिकालीन मूल-स्वरूप से इतर, वर्तमान पीढ़ी के नव-शिल्पियों के लिये व्यावसायिक-कारीगरी का साधन भी बन चुका है।हालाँकि यह एक नवीन प्रयोग है, परंतु इसके द्वारा उन्हें पिछले चंद दशकों से, रोजगार के साथ-साथ व्यापक सम्मान भी प्राप्त हो रहा है। (Nishi Malhotra) आज इस व्यावसायिक-पौध की कारीगरी के कुछ भारतीय केंद्रों में- मधुबनी जिले के- रैयाम, सैरसोंपाही, उमरी, सरहद शाहपुर, लहेरियागंज गाँव; दरभंगा जिले के वारी, सुपौल बिरौल, रामपुर पंडौल आदि कुछ गाँव; सिवान जिले के नारायणपुर, सिकिया, संतु, मियाँ के भटकन, आदि गाँव तथा, नेपाल के केंद्रों में- कपिलवस्तु जिले के बाणगंगा एवं बुद्धभूमि, धनुषा जिले में जनकपुर, बाँके जिले में थारु समुदाय के गाँवों के साथ-साथ, बर्दिया और दांग जिलों में भी छोटे-बड़े पैमानों पर सिक्की शिल्प की व्यावसायिक-कारीगरी की जा रही है। 

इस कारीगरी के क्षेत्र में विभिन्न नव-संरचनाओं का भी आगमन अब हो चुका है, जिनका उत्पादन लोकशिल्पकारी के दौर में देखने को नहीं मिलता था। इनमें से कुछ हैं- फूलदान, चूड़ियाँ, बटन, कुशनकवर, इयररिंग, पेंडेंट, ब्रूच, नेकलेस, टी-कोस्टर, अँगूठी, आदि। इन लोगों को और भी अनुप्रयोग करने चाहिएँ, जैसे कि, गर्म-सतहों (अधिकतम 80° तक सुरक्षित) हेतु विभिन्न प्रकार के अंग-सुरक्षा पैड, उदाहरण- पकाये जा चुके सिरामिक्स के साथ ऊपरी डिजायन अनुप्रयोग, बाँस एवं बेंतों के साथ विभिन्न स्तरों पर डिजायन अनुप्रयोग, आदि। 

सरकार के द्वारा इन कारीगरों को समय-समय पर सुविधाएँ भी मुहैया करवायी जा रही हैं। यह बहुत ख़ुशी की बात है कि, भारत सरकार ने इस शिल्पकला को वर्ष 2014 में जियोग्राफ़िकल इंडिकेटर-GI प्रोटेक्शन दे कर सम्मानित किया है; जो, इस शिल्प को बचाये रखने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। (M.Prabhakaran, Deputy Director (H), Development Commissioner (Handicrafts), Ministry of Textiles, Government of India, Kolkata 01-17) इस शिल्प के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान हेतु अबतक अनेक श्रेष्ठ शिल्पकारों को सम्मानित भी किया जा चुका है। (Dilip Kumar Shukla for Dainik Jagaran)

यह दुखद है कि, अन्य अनेक पारंपरिक लोकशिल्प एवं लोककलाओं की तरह, सिक्की शिल्प की दशा भी आज दीनता की तरफ़ गतिशील दिख रही रही है। कोई भी राष्ट्र, सिर्फ़ उसकी जमीन से नहीं; वरण, वहाँ के लोगों, और उनकी सांझी संस्कृति से निर्मित होता हैं। निरंतर स्थानीय पलायनवादिता आख़िर किस संस्कृति को बचा सकी है! राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय सरकारों द्वारा इस विषय में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है; ताकि, मिथिला के स्थानीय लोगों के जीविका की व्यवस्था, स्थानीय तौर पर ही हो सके। इस प्रकार यह शिल्प, देश की आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह सकेगा। परंतु, इस नश्वर संसार में, परिवर्तन ही एकमात्र सत्य हैयही सिक्की शिल्प पर भी लागू होता है! अतः, विकासोन्मुख विचारों के साथ, चरैवेति- चरैवेति!

।।।।।।

Author: Dr. Santosh Kumar Jha, PhD (Crafts Design), PGD (Crafts Design)- IICD, MBA Marketing (Handicrafts). Associate Professor, Design Department, Banasthali Vidyapith (Deemed University, NAAC-A++) Rajasthan, India.

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REFERENCES:

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Vajiram & Ravi. Sikki Grass. 04 January 2024. 05 April 2025. <https://vajiramandravi.com/upsc-daily-current-affairs/prelims-pointers/sikki-grass/>.

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M.Prabhakaran, Deputy Director (H), Development Commissioner (Handicrafts), Ministry of Textiles, Government of India, Kolkata. “Organization for an International Geographical Indications Network.” 18 December 2014. 05 April 2025. <https://www.origin-gi.com/wp-content/uploads/2018/01/536-sikki-grass-crafts-of-bihar.pdf>.

Nishi Malhotra, Palanisamy Saravanan. “Leadership as a Social Innovation for Sikki and Sujani Artists in Bihar.” In Pursuit of the Sustainable Development Goals: Success Stories of Women Entrepreneurs in Emerging Economies. Leeds: Emerald Publishing Limited, 2025. 121-143.

Dilip Kumar Shukla for Dainik Jagaran. “सिक्की कला : बेटी की विदाई में होता है खास उपयोग, 1969 में दरंभगा की विंदेश्वरी देवी को मिला था राष्ट्रपति पुरस्कार.” 19 August 2022. Dainik Jagaran.

04 April 2025. <https://www.jagran.com/bihar/bhagalpur-sikki-art-there-is-a-special-use-in-the-farewell-of-the-daughter-in-1969-vindeshwari-devi-of-darbhaga-got-the-presidents-award-22992860.html>.

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Sikki Craft. (2024). Retrieved April 05, 2025, from Upendra Maharathi Shilp Anusandhan Sansthan, Patna:https://umsas-org-in.translate.goog/sikki-craft-details/ _x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc.

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